आँखन – देखी : मंडल के गद्दार

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डायरी (26 अगस्त, 2020) : मंडल के गद्दार

कई बार यह सवाल मेरे संज्ञान में अलग-अलग लेखों के जरिए लाया गया है कि मुट्ठी भर सवर्ण बहुसंख्यक बहुजनों पर राज करने में कामयाब कैसे होते रहे हैं? क्या उनके पास कोई जादू की छड़ी है जो वह घुमाते हैं और सत्ता उनके हाथ में बनी रहती है? यह एक ऐसा सवाल है जिसके कई जवाब मैं पहले भी लिख चुका हूं। आज फिर यह सवाल मेरे सामने है।

दरअसल, मैं भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ट्वीटर एकाउंट देख रहा हूं। एक जानकारी मिल रही है कि बनारस के डोमराजा जगदीश चौधरी का निधन हो गया है। नरेंद्र मोदी ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए लिखा है कि “वाराणसी के डोम राजा जगदीश चौधरी जी के निधन से अत्यंत दुख पहुंचा है। वे काशी की संस्कृति में रचे-बसे थे और वहां की सनातन परंपरा के संवाहक रहे। उन्होंने जीवनपर्यंत सामाजिक समरसता के लिए काम किया। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे और परिजनों को इस पीड़ा को सहने की शक्ति दे।”

नरेंद्र मोदी ने दो दिनों पहले ही अरूण जेटली को उनकी पुण्यतिथि पर भी याद किया है। इसके अलावा भी उन्होंने कई बातें ट्ववीटर के जरिए शेयर किए हैं। लेकिन उन्हें बी. पी. मंडल की याद नहीं आई। मैं जब नरेंद्र मोदी का ट्टवीटर एकाउंट देख रहा हूं तो 2014 में लोकसभा चुनाव के पहले उनके उन बयानों को याद कर रहा हूं जिसमें उन्होंने स्वयं को ओबीसी जाति का बताया था। यह उनकी रणनीति का हिस्सा था ताकि 52 प्रतिशत आबादी वाले ओबीसी का वोट ले सकें।

खैर, मैं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का आधिकारिक फेसबुक पेज देख रहा हूं। मुझे यहां भी बी. पी. मंडल नहीं दिख रहे हैं। अरूण जेटली की पुण्यतिथि पर बिहार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग द्वारा जारी एक प्रेस विज्ञप्ति दिख रही है।

नीतीश कुमार ने यह भी ध्यान नहीं रखा कि मंडल जी केवल दूसरे पिछड़े वर्ग आयोग के अध्यक्ष ही नहीं बिहार के दूसरे ओबीसी मुख्यमंत्री भी थे।

दरअसल, मैं यह समझने का प्रयास कर रहा हूं कि आखिर नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी को बी. पी. मंडल से परहेज क्यों है? नीतीश कुमार तो मंडल आंदोलन की पैदाइश हैं। उनकी राजनीति परवान पर तभी चढ़ी जब मंडल कमीशन लागू किया गया। इसके पहले भी नीतीश कुमार की राजनीति में पिछड़ा वर्ग की अहम भूमिका रही। जब 1979 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण लागू करना चाहते थे तब नीतीश कुमार उनके समर्थन में आए थे। हालांकि तब भी नीतीश कुमार ने अपना सवर्ण प्रेम साइड नहीं किया था। वे चाहते थे कि सवर्णों को तीन फीसदी से भी अधिक आरक्षण मिले। इसके लिए एक लेख भी नीतीश कुमार ने लिखा था।

खैर, वह तो बहुत पहले की बात है। 1990 में जब मंडल कमीशन की अनुशंसाएं लागू हुईं और बिहार में राजनीति ने करवट बदली तब मलाई खाने वालों में केवल लालू प्रसाद ही नहीं थे, नीतीश कुमार भी रहे। बाद में तो नीतीश कुमार ने पूरी मलाई पर कब्जा जमा लिया। रही बात नरेंद्र मोदी की तो मैं यह मानता हूं कि वह संघ की पैदाइश रहे हैं। उनके लिए पिछड़ा वर्ग, आरक्षण, समता, अवसर में समानता आदि का कोई मतलब नहीं रहा है। बी. पी. मंडल को वह जानते भी नहीं होंगे। ऐसा मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूं। या यह भी हो सकता है कि चूंकि मंडल जी बिहार के थे, यादव जाति के थे और चूंकि बिहार में यादव भाजपा के वोटर नहीं हैं, इसलिए मंडल जी को याद करने या नहीं करने का कोई मतलब नहीं बनता।

लेकिन नीतीश कुमार को तो याद करना चाहिए था। लेकिन उन्होंने नहीं किया। क्यों नहीं किया? इसकी एक वजह तो यह भी संभव है कि नीतीश कुमार घोर जातिवादी हैं और व्यक्तिवादी भी। वे यह मानते हैं कि उनकी कुर्मी जाति ओबीसी की सर्वश्रेष्ठ जाति है, इसलिए भी मंडल जी को उन्होंने याद नहीं किया। एक वजह यह भी है कि नीतीश कुमार खुद के आगे किसी को तबतक भाव नहीं देते जबतक कि उसमें उनका हित न हो। एक बार यही नीतीश कुमार अनंत सिंह जैसे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले राजनेता के आगे हाथ जोड़े खड़े दिखे थे। यह कोई छिपी बात नहीं है।

खैर, यह सवाल उठ सकता है कि यदि नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार ने मंडल जी को याद नहीं किया तो इससे क्या हो गया? क्या इससे मंडल जी की महानता कम हो गई?

जाहिर तौर पर इन दोनों सवालों को अलग दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है। यदि नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार ने मंडल जी को याद किया होता तो यह संभव था कि अखबारों में छोटी ही सही, एक खबर तो छपती और आज की युवा पीढ़ी उस इंसान के बारे में जानती कि 52 फीसदी आबादी को आरक्षण कैसे मिली और इसके पीछे कौन था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आज ही मैंने दिल्ली और पटना से प्रकाशित हिन्दुस्तान के दोनों संस्करणों को देखा है, मंडल जी का नाम तक नहीं लिया गया है। क्या यह मंडल के साथ गद्दारी नहीं है?

खैर, वापस मूल सवाल पर लौटते हैं कि मुट्ठी भर सवर्ण कैसे बहुसंख्यकों पर राज कर पाते हैं? तो मेरे हिसाब से इसका एक जवाब बहुसंख्यक ही हैं। यह एक मानसिक समस्या भी है। इसको ऐसे समझने की आवश्यकता है जैसे कि यदि कोई एक रिक्शाचालक रिक्शा चलाते हुए गिर जाय तो दूसरे रिक्शेवाले को कोई फर्क नहीं पड़ता। बाजदफा तो कई रिक्शाचालक हंसते हुए निकल जाते हैं। जब वे ऐसा करते हैं तो उनके मन में यही बात रहती है कि यह तो उनके साथ भी होता रहता है। इसमें नया क्या है। लेकिन जैसे ही कोई संभ्रांत परिवार का व्यक्ति जो कि कार में सवार हो और दुर्घटना का शिकार हो जाय, रिक्शाचालक उसके प्रति सहानुभूति भी प्रदर्शित करता है। जब वह ऐसा करता है तो उसके मन में यह भाव होता है कि यह व्यक्ति उससे श्रेष्ठ है और उसका घायल होना एक अलग तरह की घटना है।

दरअसल, हो यही रहा है हमारे ओबीसी समाज में। सभी ओबीसी जातियां एक-दूसरे से प्रतिस्पर्द्धा कर रही हैं। कुर्मी को यादव से प्रतिस्पर्द्धा है तो यादव को कुर्मी और अन्य सभी से। कुशवाहा भी कुछ कम नहीं है। अति पिछड़ा वर्ग की जातियों को भी अहसास है कि बिना उनके ये कुर्मी, यादव और कुशवाहा कुछ भी नहीं।

बहरहाल, बी. पी. मंडल महान राजनेता थे। उन्होंने केवल यादवों के लिए आरक्षण की बात नहीं की। उनके सामने साढ़े पांच हजार जातियां थीं। उन्होंने सबके लिए पहल किया। नीतीश और नरेंद्र मोदी जैसे स्वार्थी लोग उनके इस योगदान को कभी नहीं समझेंगे। हम तो इन्हें ओबीसी जातियों का गद्दार ही कहेंगे।

– नवल किशोर कुमार

(हिन्दी संपादक ,फॉरवर्ड प्रेस )

नोट : ये लेखक के निजी विचार है ।

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