लोकतंत्र के योद्धा केशवानंद भारती श्रीपदागलारू अब नहीं रहे

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केशवानंद भारती : वह धर्मगुरु जिसकी कोशिशों से भारत एक लोकतंत्र के रूप में बचा रह सका

केशवानंद भारती के मामले के चलते संसद और न्यायपालिका के बीच वह संतुलन कायम हो सका जो इस फैसले के पहले के 23 सालों में संभव नहीं हो सका था

केशवानंद भारती श्रीपदागलारू, याचिकाकर्ता केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य, अब नहीं रहे। उनका निधन केरल के कासागोड़ जिले में एडानीर स्थित आश्रम में आज सुबह हुआ।

देश के न्यायिक इतिहास में केशवानंद भारती का नाम कौन नहीं जानता होगा?  सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुविख्यात ‘केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य’ के मामले में दिए गए एक ऐतिहासिक फैसले के चलते कोर्ट-कचहरी की दुनिया में वे लगभग अमर हो गए हैं।

केशवानंद भारती ने लगभग 40 साल पहले केरल सरकार के भूमि सुधार कानून को चुनौती दी थी। भारती जी का केस वरिष्ठ वकील नानी पालखीवाला ने लड़ा था। भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश सर्व मित्र सिकरी ने मामले की अध्यक्षता करने के लिए 13-न्यायाधीशों का सबसे बड़ी बेंच का एक पैनल गठित किया था।अदालत ने 23 मार्च 1973 को 7:6 के बहुमत से फैसला दिया था कि संसद संविधान के किसी भी हिस्से में उतना ही बदलाव कर सकती है जबतक कि संविधान के बुनियादी ढांचे पर असर न हो। इस फैसले का निष्कर्ष ये निकला कि संसद के पास संविधान को संशोधित करने की शक्ति है, लेकिन यह तबतक ही प्रभावी होगा जबतक संविधान के मूलभूत ढांचे में किसी तरह का बदलाव न किया जाए।

उन्होंने म्यूट प्रॉपर्टी लेने के केरल सरकार के कदम पर सवाल उठाते हुए संविधान (29 वां संशोधन अधिनियम, 1972) को चुनौती देते हुए एक मामला दायर किया था। उनके कदम का समय महत्वपूर्ण था क्योंकि यह उस समय के आसपास आया था जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने बदलाव किए थे। बैंक के राष्ट्रीयकरण और प्रिवी पर्स के मामलों में सरकार के पक्ष में शासन करने के लिए अदालत को पाने के लिए संविधान के 24 वें, 25 वें, 26 वें और 29 वें संशोधन में।

हालांकि बहुतों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि न्यायिक दुनिया में अभूतपूर्व लोकप्रियता के बावजूद केशवानंद भारती न तो कभी जज रहे हैं और न ही वकील। उनकी ख्याति का कारण तो बतौर मुवक्किल सरकार द्वारा अपनी संपत्ति के अधिग्रहण को अदालत में चुनौती देने से जुड़ा रहा है। वैसे वे दक्षिण भारत के बहुत बड़े संत हैं।

केरल के शंकराचार्य :

कासरगोड़ केरल का सबसे उत्तरी जिला है। पश्चिम में समुद्र और पूर्व में कर्नाटक से घिरे इस इलाके का सदियों पुराना एक शैव मठ है जो एडनीर में स्थित है। यह मठ नवीं सदी के महान संत और अद्वैत वेदांत दर्शन के प्रणेता आदिगुरु शंकराचार्य से जुड़ा हुआ है। शंकराचार्य के चार शुरुआती शिष्यों में से एक तोतकाचार्य थे जिनकी परंपरा में यह मठ स्थापित हुआ था। यह ब्राह्मणों की तांत्रिक पद्धति का अनुसरण करने वाली स्मार्त्त भागवत परंपरा को मानता है।

इस मठ का इतिहास करीब 1,200 साल पुराना माना जाता है। यही कारण है कि केरल और कर्नाटक में इसका काफी सम्मान है। शंकराचार्य की क्षेत्रीय पीठ का दर्जा प्राप्त होने के चलते इस मठ के प्रमुख को ‘केरल के शंकराचार्य’ का दर्जा दिया जाता है। ऐसे में स्वामी केशवानंद भारती केरल के मौजूदा शंकराचार्य कहे जाते हैं। उन्होंने महज 19 साल की अवस्था में संन्यास लिया था जिसके कुछ ही साल बाद अपने गुरू के निधन की वजह से वे एडनीर मठ के मुखिया बन गए। 20 से कुछ ही ज्यादा की उम्र में यह जिम्मा उठाने वाले स्वामी जी पिछले 57 सालों से इस पद पर मौजूद हैं। हालांकि उनके सम्मान में उन्हें ‘श्रीमत् जगदगुरु श्रीश्री शंकराचार्य तोतकाचार्य श्री केशवानंद भारती श्रीपदंगलावारू’ के लंबे संबोधन से बुलाया जाता है।

एडनीर मठ का न केवल अध्यात्म के क्षेत्र में दखल रहा है बल्कि संस्कृति के अन्य क्षेत्रों जैसे नृत्य, कला, संगीत और समाज सेवा में भी यह काफी योगदान करता रहा है। भारत की नाट्य और नृत्य परंपरा को बढ़ावा देने के लिए कासरगोड़ और उसके आसपास के इलाकों में दशकों से एडनीर मठ के कई स्कूल और कॉलेज चल रहे हैं।

उनकी परेशानी क्या थी ?

इसके अलावा यह मठ सालों से कई तरह के व्यवसायों को भी संचालित करता है साठ-सत्तर के दशक में कासरगोड़ में इस मठ के पास हजारों एकड़ जमीन भी थी। यह वही दौर था जब ईएमएस नंबूदरीपाद के नेतृत्व में केरल की तत्कालीन वामपंथी सरकार भूमि सुधार के लिए काफी प्रयास कर रही थी। समाज से आर्थिक गैर-बराबरी कम करने की कोशिशों के तहत राज्य सरकार ने कई कानून बनाकर जमींदारों और मठों के पास मौजूद हजारों एकड़ की जमीन अधिगृहीत कर ली। इस चपेट में एडनीर मठ की संपत्ति भी आ गई। मठ की सैकड़ों एकड़ की जमीन अब सरकार की हो चुकी थी। ऐसे में एडनीर मठ के युवा प्रमुख स्वामी केशवानंद भारती ने सरकार के इस फैसले को अदालत में चुनौती दी।

केरल हाईकोर्ट के समक्ष इस मठ के मुखिया होने के नाते 1970 में दायर एक याचिका में केशवानंद भारती ने अनुच्छेद 26 का हवाला देते हुए मांग की थी कि उन्हें अपनी धार्मिक संपदा का प्रबंधन करने का मूल अधिकार दिलाया जाए। उन्होंने संविधान संशोधन के जरिए अनुच्छेद 31 में प्रदत्त संपत्ति के मूल अधिकार पर पाबंदी लगाने वाले केंद्र सरकार के 24वें, 25वें और 29वें संविधान संशोधनों को चुनौती दी थी। इसके अलावा केरल और केंद्र सरकार के भूमि सुधार कानूनों को भी उन्होंने चुनौती दी।जानकारों के अनुसार स्वामी केशवानंद भारती के प्रतिनिधियों को सांविधानिक मामलों के मशहूर वकील नानी पालकीवाला ने सलाह दी थी कि ऐसा करने से मठ को उसका हक दिलाया जा सकता है। हालांकि केरल हाईकोर्ट में मठ को कामयाबी नहीं मिली जिसके बाद यह मामला आखिरकार सुप्रीम कोर्ट चला गया।

देश की शीर्ष अदालत ने पाया कि इस मामले से कई संवैधानिक प्रश्न जुड़े हैं। उनमें सबसे बड़ा सवाल यही था कि क्या देश की संसद के पास संविधान संशोधन के जरिए मौलिक अधिकारों सहित किसी भी अन्य हिस्से में असीमित संशोधन का अधिकार है। इसलिए तय किया गया कि पूर्व के गोलकनाथ मामले में बनी 11 जजों की संविधान पीठ से भी बड़ी पीठ बनाई जाए। इसके बाद 1972 के अंत में इस मामले की लगातार सुनवाई हुई जो 68 दिनों तक चली। अंतत: 703 पृष्ठ के अपने लंबे फैसले में केवल एक वोट के अंतर से शीर्ष अदालत ने स्वामी केशवानंद भारती के विरोध में फैसला दिया।

एडनीर मठ के शंकराचार्य वैसे तो यह मामला हार गए थे, लेकिन इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया वह आज भी मिसाल है. इससे संसद और न्यायपालिका के बीच वह संतुलन कायम हो सका जो इस फैसले के पहले के 23 सालों में संभव नहीं हो सका था। और इसके साथ ही अपनी बाजी हारकर भी स्वामी केशवानंद भारती इतिहास के ‘बाजीगर’ बन गए थे।

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