मशाल उठाने पड़ते हैं : अदित्य कमल
मशाल उठाने पड़ते हैं
अन्धकार गहराये , तो मश्आल उठाने पड़ते हैं
दीये जलाने पड़ते हैं , अलाव बचाने पड़ते हैं ।
ज़ुल्म-दमन बढ़ता जाए तो जुटते हैं प्रतिरोध के स्वर
कूड़ा – करकट जमा हुए तो यार , जलाने पड़ते हैं ।
बहरों का शासन गर अपनी छाती तक चढ़ आता है
हंगामा करना पड़ता है , शोर मचाने पड़ते हैं ।
घर में दुबके रहना भी जब नहीं सुरक्षित रह जाए
घर – बाहर के मुद्दे सब , सड़कों पे लाने पड़ते हैं ।
मानवभक्षी भेड़िए खून के प्यासे जब गुर्राते हों
जत्थों में जुट करके तब , हाके ही लगाने पड़ते हैं ।
आग लगाकर बस्ती में जब नीरो बंसी छेड़ता है
जलते लोगों को विद्रोही गाने , गाने पड़ते हैं ।
रोज़ ही जगती है दुनिया कुछ नई-नई करवट लेती
रोज़ नया अंकुर उगता , कुछ रस्म पुराने पड़ते हैं ।
ऐसे ही जब उथल-पुथल कर आता है बदलाव का मोड़
तख़्त गिराने पड़ते हैं , इतिहास बनाने पड़ते हैं ।
(लेखक पटना विश्वविधालय के छात्र है )