निजीकरण का नया दौर : आरक्षित समूह पर प्रहार
बहुत सरल भाषा में “निजीकरण” का अर्थ सरकार संचालित -संपोषित संस्थानों का व्यापारिक घरानों के हाथों सौंप देना है । इस पारिभाषिक शब्द के पर्याय रूप में समयानुसार विनिवेश, उदारीकरण, पी पी पी मॉडल आदि शब्दों का प्रयोग होता रहा है । भारतीय परिप्रेक्ष्य में आजादी के बाद पहले चार दशकों तक “महालनोबिस” सिद्धांत के आधार पर बड़े उद्योंगों की एक बड़ी नींव रखी गई । सरकार संपोषित व सरकार संरक्षित इन उद्योंगो ने नए और विकासशील भारत की आधारशिला रखी । आज महारत्न , नवरत्न ,मिनी रत्न आदि श्रेणियों में वर्गीकृत औद्योगिक कम्पनियां उसी दूरदर्शी “नेहरू-महालनोबिस मॉडल ” की परिणति हैं ।
देश को औद्योगिक रूप से खड़ा करने में इन बड़े उद्योगों की भूमिका पर सवाल खड़े करना वास्तव में अपनी आर्थिक विकास -यात्रा को भूला देने की साज़िश भर है । इसके समानान्तर निजी व्यावसायिक घरानों ने भी कई बड़े -बड़े उद्योगों को प्रश्रय दिया और निश्चित रूप से आर्थिक विकास में एक बड़ी भूमिका निभाई । आर्थिक विकास की इस यात्रा में टाटा, बिरला आदि व्यापारिक घरानों की भूमिका पर कोई प्रश्नचिन्ह नही लगाया जा सकता , न ही लगाना चाहिए ! तमाम निजी कंपनियों के साझे हस्तक्षेप के बावजूद “लोककल्याणकारी -समाजवादी राष्ट्र” की अवधारणा को पुष्ट करते हुए सार्वजनिक क्षेत्रों अर्थात “सरकारी संस्थानों” ने अपने आप को देश और पूरी दुनिया के सामने मजबूती के साथ आर्थिक मोर्चे पर सफल साबित किया ।
तत्कालीन आरक्षित वर्ग अर्थात “अनुसूचित जाति और जनजाति समूह “के उठान में इन सार्वजनिक क्षेत्रक की भूमिका महत्वपूर्ण रही ।अर्थव्यवस्था के विकास के साथ उस समय के आरक्षित समुदाय के आर्थिक स्थिति में थोड़ा बहुत सुधार हुआ-इससे इनकार नही किया जा सकता । सरकारीकरण के लिए सन “1969” के वर्ष को भूलना नही चाहिए जहां एकसाथ कई निजी बैंको का सरकारीकरण सम्भव हुआ और एक तरह से बैंक से आम जनता का सीधा जुड़ाव सम्भव हुआ ।
खैर यह इतिहास का हिस्सा है ,और गड़े पन्ने भविष्य -योजना के पथ- प्रदर्शक भी होते हैं और पथ-विध्वंसक भी । सकारात्मक पक्ष को ग्रहण करें तो यह दौर कमसे कम आम आदमी और अर्थव्यवस्था के विकेंद्रीकरण के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण है । खैर ,इतिहास की बातें इतिहास पर छोड़ा जाय ! भारतीय आर्थिक और सामाजिक विकास का दूसरा चरण 1990 और नब्बे के दशक से प्रारम्भ होता है जहां वैश्विक स्तर पर “उदारीकरण” और राष्ट्रीय स्तर पर “मण्डल आयोग” व ओबीसी आरक्षण से उपजे नए राजनीतिक-सामाजिक उठान ने पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था व सामाजिक-संरचना में एक नया उन्मेष पैदा किया , एक नए और तकनीकी दक्षता से लैश नए भारत की नींव रखी ।
इनदोनों घटनाओं ने पूरे भारतीय अर्थव्यवस्था और सामाजिक -राजनीतिक संरचना में भूचाल पैदा कर दिया । आर्थिक मोर्चे पर एक ओर निजीकरण /विनिवेश को खुली छूट मिली वहीं सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर जातीय सत्ता समीकरण में भारी उलटफेर हुआ । दोनों घटनाओं के सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम भी सामने आए ,आज भी यह दौर इसी उथल-पुथल से लबरेज़ है ;कहने में कोई गुरेज नही !
“उदारीकरण” ने निजीकरण का रास्ता खोल दिया और “मण्डल” ने सामाजिक न्याय का रास्ता बनाया । यहां यह देखना लाज़मी है कि निजीकरण के खिलाफ किसी ने कड़ा विरोध नही किया ,लेकिन “मण्डल” के खिलाफ “कमण्डल” का यथास्थितिवादियों का पूरा कुनबा सामने सड़क पर उपद्रव करते नज़र आये । “सामाजिक न्याय” के बनते “ढांचे” को “कमण्डल नामक शस्त्र” से तोड़ा गया, और तोड़ने की कोशिश आज तक जारी है ,वहीं निजीकरण को तीव्रतम गति मिली ।
यह कड़वा सच है कि “मण्डल”को सत्ता में भले ही छिटपुट भागीदारी मिली परन्तु “कमण्डल विमर्श” और मण्डल के पोषकों की अदूरदर्शिता ने आर्थिक मोर्चे पर मुंह की खाई और आज भी यह संघर्ष जारी है । “धर्म “और “जाति” नामक “कमण्डलीय -शस्त्र” द्वारा प्रसारित और प्रचारित “नरेटिव” के द्वारा परोसे गए उन्माद ने ओबीसी आरक्षण और प्रतिनिधित्व को सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर बहुत पीछे धकेल दिया है । खैर यह भी लगभग 30 साल पुरानी बात हो गयी है , आधुनिक भारत के इतिहास लिखने वाले इतिहासकार इस पर आगे लिखेंगे ही !
अब बात :”आज”: की करते हैं , जब “कमण्डल” जीत का “ध्वजा” फहराते हुए जश्न मना रहा है और बहुसंख्यक समुदाय उसके जश्न के लिए दीया, तेल, बत्ती , फूल , आदि सामग्री जोड़ने -जुटाने में व्यस्त है । कहा जा सकता है कि उनका कमण्डल आंदोलन अपनी सफलता का जश्न मना रहा है और मण्डल आंदोलन और आरक्षित समूह संविधान प्रदत अधिकारों के लिए जगह तलाश रहा है । अर्थात स्थिति 90 से अलग नही है – न “अर्थव्यवस्था” के विकेंद्रीकरण के लिहाज़ से न ही “सामाजिक न्याय” के धरातल पर । निजीकरण का यह “नया दौर” है जहां कोई नई कम्पनी बन नही रही बल्कि बनी बनाई सरकारी कम्पनियां ही निजी व्यापारिक प्रतिष्ठानों को बेची जा रही हैं । महालनोबिस -नेहरू के सपनो का शहर उजड़ रहा है, नवरत्न ,महारत्न ,मिनी रत्न आंकलित कई सरकारी कम्पनियां बिक गई या बिकने को तैयार हैं और वर्तमान सरकार इसे लेकर “उत्सव” के मूड में हैं । “रेलवे” से लेकर “बी पी सी एल” अब बिकने के लिए निजी बाजार में साज-सज्जा के साथ तैयार कर ली गयी हैं ।
सत्ता और पूंजी का ऐसा गठजोड़ आज़ाद भारत ने कभी न देखा ! बहुजन वर्ग में इस निजीकरण के प्रति चुप्पी को उसकी नासमझी या डर समझें ,यह समझ से परे है -ऐसी चुप्पी भी शायद आज़ाद भारत न कभी महसूस न की होगी । निजीकरण और आरक्षित समूह का हित परस्पर विरोधी है -शायद यह समझने में किसी को कोई परेशानी या ज्यादा ऊर्जा खर्च करने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी । चूंकि निजी क्षेत्र में आरक्षण का प्रावधान नही है, इसलिए जो “सरकारी उपक्रम” निजी कर दिए जा रहे हैं ,उनमे उन्हें रोजगार नही मिलेगा -यह तथ्य समझने और समझाने की नही है ।
बावजूद इसके एक ओर सरकार “क्रीमीलेयर” में बदलाव करने पर आमादा है, सरकारी कम्पनियों को बेच रही है , और अधिकांश बहुजन समुदाय या तो खामोश है या डरा हुआ है, या फिर उसे “परसाद” पर भरोसा ज्यादा है । जब उन्हें प्राइवेट क्षेत्र में आरक्षण की मांग करनी थी ,वे खुद ही किसी “पर्सनल” के लिए “प्राइवेट” हो रहे हैं, जब उन्हें निजीकरण का विरोध कर अपने आने वाली पीढ़ी को संरक्षित करना है, वे मंदिर-मस्जिद में लगे हैं , जब उन्हें अपने हिस्से की हिस्सेदारी मांगनी है ,वे अपना घर बेच नींद में घोड़े पाल रहे हैं … सरकारी कम्पनियों का निजीकरण बहुजन विरोधी और बहुजन समाज के आर्थिक-सामाजिक हित के ठीक विपरीत और उन्हें गुलाम बनाये रखने की एक बड़ी चाल है —– अगर आप समझ सकें तो अपने बच्चों के लिए कुछ बचा पाएंगे अन्यथा “कमण्डल” आपके “मण्डल” पर ध्वजा फहराते रहेगा और कल आने वाली हमारी- आपकी पीढ़ी केवल और केवल “परसाद” की प्रतीक्षा में लाइन लगाए खड़ी होगी ……
कल्पना कीजिए बस कि आप आने वाली पीढ़ी के लिए क्या छोड़े जा रहे हैं ……..!??
फैसला आपका -सोच आपकी बाकी मैं क्या ही कहूँ –आप स्वयं समझदार हैं ,जागरूक भी !!
By : डॉ ज्ञान प्रकाश ,राम मनोहर लोहिया स्मारक महाविद्यालय
बिहार विश्व विद्यालय