निजीकरण अब सरकारी नीति बन गई है

Spread the love

निजीकरण या निजी क्षेत्रों को आमंत्रण या एफडीआई से उद्योगों की स्थापना का मतलब यह नहीं है कि सरकार पहले से स्थापित सभी सरकारी कल कारखानों को औने पौने दामों में पूंजीपतियों को बेंच दे। बल्कि इसका अर्थ यह है कि पूंजीपति जिस भी क्षेत्र में प्रवेश करना चाहते हैं उंस क्षेत्र के उद्योग विकसित करें।

सरकार ईज ऑफ डूइंग बिजनेस के रुप में उन्हें उचित दर पर ज़मीन, बिजली, और इंफ्रास्ट्रक्चर की सुविधा दे। जैसे यदि कोई रेलवे क्षेत्र में आना चाहता है वह कोच या इंजन या अन्य जो भी बनाना चाहे नयी ज़मीन खरीदे और नई जगह उसे बजाए। यह नहीं कि जाकर डीएलडब्ल्यू खरीद ले और फिर उसकी अतिरिक्त ज़मीन पर फ्लैट बनाये या प्लाट काटने लगे।

सरकारी कारखानों की तरफ निजी क्षेत्र का झुकाव इसलिए भी है कि इन सरकारी उद्योगों के पास अतिरिक्त ज़मीनें बहुत हैं जो या तो फैक्ट्रियों में है या उनकी टाउनशिप में है। सरकारें जब उद्योग या कोई प्रतिष्ठान लगाती हैं तो, सदैव ही अधिक भूमि अधिग्रहित कर लेती हैं ताकि सौ साल बाद भी कुछ विस्तार करना पड़े तो भूमि की कमी न रहे।

आज भो देश मे सबसे अधिक ज़मीन, डिफेंस, रेलवे और सरकारी प्रतिष्ठानों के पास है और उनके कार्यालय, शो रूम आदि किसी भी शहर के सबसे महत्वपूर्ण तथा महंगे स्थानों पर है। यही रियल स्टेट पूंजीपतियों और उनकी शह पर कुछ लोभी राजनेताओं को ललचाता रहता है। नेताओं और राजनीतिक दलों को इलेक्टोरल बांड के माध्यम से धन मिलता है और पूंजीपतियों को सरकारी कम्पनियां।

सरकार को अपने प्रतिष्ठानों का निजीकरण करने के बजाय उनका आधुनिकीकरण और उनके प्रबन्धन में व्याप्त कमियों को दूर करना चाहिए। अधिकतर सरकारी प्रतिष्ठान नौकरशाहों के अभयारण्य बन कर रह गये हैं। उन्हें प्रोफेशनल मैनेजमेंट के कुशल प्रबंधकों द्वारा संचालित किया जाना चाहिए।

सरकारी प्रतिष्ठान घाटे में हैं तो उन्हें घाटे में जाने देने की जिम्मेदारी किस पर है ? सरकार की नीतियां और उसे बनाने वाले खुद ही ऐसी नीतिया बनाते हैं जिससे सरकारी प्रतिष्ठान घाटे में जाने लगते हैं। जैसे एयर इंडिया को बर्बाद करने के लिये विजय माल्या के किंगफिशर एयरलाइंस को जानबूझकर कर कमाने वाले रूट और समय दिए गए।

यही फेवर जिओ के लिये भी सरकार ने किया। जब जिओ के विज्ञापन पर प्रधानमंत्री सुशोभित हो रहे थे, तब बीएसएनल को 4 जी का लाइसेंस भी इसी सरकार ने नहीं दिया। पेटीएम को सरकार ने बढ़ावा दिया पर ऐसा कोई सरकारी ऐप सरकार ने इतने धूम धड़ाके के साथ नहीं शुरू किया। आज अभी सरकार यही कर दे कि निजी क्षेत्र अपने उद्योग नयी जगह पर लगाये तो शायद कोई बहुत उत्साहजनक प्रतिक्रिया, पूंजीपतियों के खेमे से नहीं मिले।

सरकारी प्रतिष्ठान के रूप में उन्हें बस थोड़ा बहुत उसका आधुनिकीकरण करके प्रबंधन करना होता है और इसका उन्हें लाभ उस प्रतिष्ठान के ब्रांड का भी मिलता है। निजीकरण, नेता, नौकरशाही और पूंजीपतियों के एक कॉकस का बेहद शातिर खेल है जिसे कभी कभी मज़दूर संगठन भी समझ नहीं पाते हैं और मीडिया हम सबकी यही धारणा बना देता है कि सरकारी प्रतिष्ठान, स्कूल, अस्पताल आदि बेकार की चीजें हैं।

वाया : विजय शंकर सिंह

( भुतपूर्व IPS ,उप सरकार )

(ये लेखक के निजी विचार है )

Leave a Reply