गुरु-शिष्य की परम्परा का एक बेहतरीन और दिल छू जाने वाला उदाहरण है ।

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पाकिस्तान के पहले नोबल लोरेयेट डॉ. अब्दुस सलाम को 1979 में पार्टिकल फिसिक्स में नोबल प्राइज़ दिया गया। नोबल मिलने के बाद डॉ. सलाम ने भारत सरकार को अनुरोध किया कि वो उन्हें उनके गणित के शिक्षक डॉ. अनिलेंद्र गांगुली को ढूँढने में मदद करें जो उन्हें विभाजन से पहले लाहोर के सनातन धर्म कॉलेज में पढाया करते थे। डा. गांगुली ने जो गणित की ज्वाला उनके अंदर प्रज्वलित की थी उसी के कारण वो बाद में साइंटिस्ट बन सके पर विभाजन के बाद डा. गांगुली कलकत्ते आ कर कही बस गए थे।

 

 

 

सरकार को दो साल लगे डा. गांगुली को ढूंढते हुए। आखिर 19 जनवरी 1981 को डा. सलाम भारत आये और कलकत्ता अपने प्रिय शिक्षक के घर उन्हें मिलने गए। तब तक डा. गांगुली इतने बुजुर्ग और बीमार हो चुके थे कि वो उन्हें उठ कर मिल भी नहीं सके। डा. सलाम ने उनके हाथो में अपना नोबल प्राइज़ रखा और कहा – “ये नोबल आपका है सर, मेरा नहीं। आपकी ही दी शिक्षा के कारण मैं ये सब कर पाया।
(ग-गन ऋ-सम की पोस्ट /साभार)

लेकिन कहानी सिर्फ़ यहीं खत्म नहीं होती है!

भारतीय पत्रकार सनोबर फातमा के एक ट्विटर पोस्ट के मुताबिक, साल 1981 में यूनिवर्सिटी ऑफ़ कोलकाता ने डॉ. सलाम को द देवप्रसाद सर्बाधिकारी गोल्ड मेडल से सम्मानित करने का फैसला किया। पर डॉ. सलाम ने विनम्रता से इस मेडल को मना करते हुए कहा कि इस पुरस्कार के सही हक़दार उनके गुरु हैं। यूनिवर्सिटी ने बाद में बीमार अनिलेंद्रनाथ के घर पर एक छोटा-सा आयोजन किया, जिसमें डॉ. सलाम मौजूद थे। उन्होंने खुद अपने शिक्षक को सम्मानित होते हुए देखा। इसके कुछ समय बाद, 1982 में अनिलेंद्र बाबु की मृत्यु हो गयी।

यक़ीनन, यह वाकया संसार में गुरु-शिष्य की परम्परा का एक बेहतरीन और दिल छू जाने वाला उदाहरण है। दुःख की बात यह है कि डॉ. सलाम को उनके अपने देश में कभी भी वह सम्मान और प्रेम नहीं मिला, जिसके वह हकदार थे। लेकिन भारतीयों के दिलों में वह हमेशा रहेंगे और हमें गर्व है कि भारत के इतिहास का एक पन्ना, हमारे पड़ोसी मुल्क के एक काबिल और दरियादिल वैज्ञानिक के लिए समर्पित है।
(The betterindia.com से साभार)

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