क्या प्रणब मुखर्जी की हत्या की गई है? एक असहज पर वाजिब सवाल ।

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 क्या प्रणब मुखर्जी की हत्या की गई है?

आदमी के मन में कोई भी विचार स्थायी तौर पर नहीं रह सकता। हां विचारधारा जरूर स्थायी हो सकती है या फिर एक लंबे समय तक। विचार और विचारधारा दोनों दो बातें हैं। विचार तो कुछ भी हो सकता है। मसलन यह कि आप कॉफी के शौकीन हों और आपको किसी दिन चाय पीने का विचार हो। आप सिगरेट पीते हैं और किसी दिन आपका मन बीड़ी पीने या फिर हुक्का पीने का करे। इसी तरह आप साहित्य के रसिक हों और किसी दिन आपके मन में यह सवाल आए कि मंगल ग्रह पर जब कालोनियां बनने लगेंगी तब क्या आप भी वहां एक छोटा सा घर ले सकेंगे।

 

मुझे लगता है कि आदमी हर दिन हर तरह के विचार सोचता है। वह संभोग के बारे में भी सोचता है और समाधि के बारे में भी। यही आदमी होने की शर्त भी है कि उसके मन में विविध प्रकार के विचार हों और सवाल हों।

एक सवाल मेरे मन में चल रहा है। कहीं प्रणब मुखर्जी की हत्या तो नहीं हुई? आप कहेंगे यह कैसा विचार है। लेकिन यकीन मानिए यह सवाल बेवजह नहीं है। दरअसल, 31 अगस्त को जब उनके निधन की जानकारी सामने आयी तब मेरी दिलचस्पी यह जानने में रही कि आखिर उनकी मौत कैसे हुई। जो खबर सामने आयी उसके मुताबिक उनके मस्तिष्क की सर्जरी दिल्ली के सैनिक अस्पताल में की गई थी और यह सफल सर्जरी थी। पहले यह बताया गया कि उनके मस्तिष्क में संक्रमण था। इसलिए यह सर्जरी की गई थी। और इसके पहले 10 अगस्त, 2020 को जब प्रणब मुखर्जी ने घोषणा की थी कि वे कोरोना पॉजिटिव पाए गए हैं। तब उन्होंने यह बताया था कि वे किसी खास को देखने एक अस्पताल गए थे और वहां उन्हें कोरोना का संक्रमण हुआ।

तो मतलब यह साफ है कि हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपति कोरोना पॉजिटिव थे और इसी कारण उन्हें अस्पताल ले जाया गया था।

31 अगस्त को उनकी मौत के बाद जो खबर आयी, वह चौंकाने वाली थी। कई अखबारों को उलट-पलटकर देखा कि मौत की वजह क्या रही। जो सामने आया वह यह कि मस्तिष्क की सर्जरी के बाद संक्रमण उनके फेफड़े में हो गया था और इस कारण उनकी मौत हुई। आज के “जनसत्ता” में एक खबर छपी है। खबर चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता हुया चुयनिंग के हवाले से है। चीनी प्रवक्ता ने कहा है कि प्रणब मुखर्जी के निधन का असर चीन-भारत मैत्री पर भी पड़ेगा। इसी खबर में यह भी बताया गया है कि भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति की मौत हर्ट अटैक के कारण हुई।

झूठ कौन बोल रहा है? क्या भारत सरकार भारत और शेष दुनिया के लोगों को यह नहीं बताना चाहती है कि भारत के राष्ट्रपति रहे शख्स की मौत कोरोना के कारण हो गई है? आखिर क्यों नहीं बताना चाहती? क्या इससे यह सवाल उठेगा कि भारत में स्वास्थ्य सुविधाएं इतनी बेकार हैं कि वह अपने राष्ट्रपति तक को नहीं बचा सकता?

जबकि भारत के गृहमंत्री अमित शाह कोरोना पॉजिटिव हुए, उनके फेफड़े में भी संक्रमण हुआ, लेकिन वे जिंदा बच गए। वजह रही कि उन्होंने अपना इलाज भारत के एक सबसे महंगे अस्पताल में कराया था। फिर जब सवाल उठा कि सरकार को अपने ही अस्पताल पर विश्वास नहीं है तो दिखावे के लिए अमित शाह ने खुद को एम्स, दिल्ली में भर्ती कराया। अब वे स्वस्थ हैं। लेकिन भूतपूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी कोरोना से जंग में मारे गए।

इसी बात से एक बात और याद आयी। भारत सरकार के आरोग्य ऐप के ब्रांड आंबेस्डर अमिताभ बच्चन भी अपने परिजनों समेत कोरोना पॉजिटिव हुए। हालांकि उन्होंने मोदी सरकार के कहने पर ताली भी बजायी थी और घी के दीए भी जलाए थे। अमिताभ बच्चन का जन्म 11 अक्टूबर, 1942 को हुआ जबकि प्रणब मुखर्जी का जन्म 11 दिसंबर, 1935 को। इस प्रकार प्रणब मुखर्जी अमिताभ बच्चन से करीब 7 वर्ष उम्र में बड़े रहे। अमिताभ बच्चन को भी तमाम तरह की स्वास्थ्य परेशानियां पहले से थीं। किडनी और हृदयरोग आदि के बारे में तो कई बार अखबारों में प्रकाशित हुए। लेकिन जब वे कोरोना पॉजिटिव हुए तो नानावती अस्पताल में भर्ती हुए। और देखिए कमाल कि वह भी ठीक हो गए। लेकिन यह देश अपने पूर्व राष्ट्रपति को नहीं बचा सका। और केवल बचा ही नहीं सका, वह उनकी मौत के बारे में सच बोलने से भी बच रहा है।

जैसा कि मैंने पहले कहा कि आदमी के मन में तमाम तरह के विचार आते हैं, मेरे मन में भी आते हैं। ये विचार आते कहां से हैं? इसका सीधा सा जवाब न्यूटन द्वारा प्रतिपादित गति के तीनों नियम दे देते हैं। आदमी के मन में कोई विचार तब तक नहीं आता जबतक कि उस तक उससे जुड़ी सूचनाएं न पहुंचायी जायें और यह भी हर विचार के समानांतर एक और विचार का जन्म होता ही है।

अब “जनसत्ता”को ही देखिए। यह एकमात्र ऐसा हिंदी अखबार है जिसने प्रणब मुखर्जी को “प्रणब दा” कहा है। यह लीक से हटकर किया गया है। लेकिन यह अतिरिक्त संबोधन क्यों? क्या इसकी वजह यह तो नहीं कि वे ब्राह्मण थे?

कई सारे सवाल हैं। एक सवाल यह है कि क्या अखबारों को सूचना का अधिकार अधिनियम के दायरे में नहीं लाया जाना चाहिए? संभव है कि मेरे संगी-साथी मेरे सवाल पर मेरी हंसी उड़ाएं लेकिन मैं यह मानता हूं कि अखबार और न्यूज चैनलों में जनता का पैसा होता है। अखबारों में तो यह रोजाना देखा जा सकता है। आज के ही जनसत्ता में 6 पन्नों में केवल सरकारी विज्ञापन हैं। पटना से प्रकाशित दैनिक हिन्दुस्तान में भी पांच पन्नों में सरकारी और करीब 3 पन्नों में विभिन्न कंपनियों के। यदि सरकारें अखबारों को विज्ञापन देना बंद कर दें तो अखबार बंद हो जाएंगे। यह बात सरकार भी जानती है और अखबारों के मालिक भी।

मेरे गृह राज्य बिहार के मुख्यमंत्री ने अखबारों के इसी कमजोर नब्ज को कसकर पकड़ा हुआ है। वह तो अखबारों का विज्ञापन रोक देते हैं यदि अखबारों में उनके खिलाफ कोई खबर छपे। कहना गैर मुनासिब नहीं कि बिहार में 15 साल से अखबारों के भरोसे सरकार चलाने का कीर्तिमान नीतीश कुमार ने बना लिया है। देखें, वहां की जनता इस सच को मानती है या नहीं। मैं तो यही चाहूंगा कि बिहार में सरकार हो लेकिन अखबाराें के भरोसे वाली नहीं। जनता के भरोसे वाली सरकार बने।

बहरहाल, नींद आ रही है। आज ही एक कविता सूझी –

नींद एक कसौटी है कि
आदमी आदमी ही है
इश्कबाज नहीं।

इश्क में आदमी को नींद नहीं आती
आती भी है तो
टूट जाती है
चंद्रमा की शीतल रोशनी से
फिर उसे ख्वाब भी
बहुत आते हैं।

नींद के लिए जरूरी है इत्मीनान
इत्मीनान के लिए जरूरी है कि
आदमी के पेट में हो अनाज के दाने
पर्याप्त मात्रा में पानी भी।

इत्मीनान और आदमियत
एक-दूसरे को आड़े की तरह काटते हैं
आदमियत की चाह में
आदमी मशीन बन जाता है
और मशीनों के पेट में
नींद की गोलियां
इत्मीनान की दुश्मन।

नींद के लिए जरूरी है
आजादी की गंध
फिर वह महज एक झोंका ही हो।

और आजादी मुफ्त में नहीं मिलती
करनी पड़ती है बदले में गुलामी।

नींद गुलामी और आजादी के बीचोंबीच है
जीवन की संख्या रेखा पर
दायें या बायें खिसकने पर
टूट जाती है नींद
गायब हो जाता है
एक झटके में पहाड़ का हुस्न।

कितना कुछ होता है
जब आदमी नींद में होता है
और जब नहीं होता तब ….

– नवल किशोर कुमार

(हिन्दी संपादक ,फॉरवर्ड प्रेस )

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