इतिहास के पन्नों मे बहुजनो के पेरियार ललई सिंह यादव

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ललई सिंह यादव (०१ सितम्बर १९११ — ७ फरवरी १९९३) सामाजिक कार्यकर्ता (ऐक्टिविस्ट) थे जिन्होने सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष किया और सामाजिक न्याय के अपने लक्ष्य के लिए अनेक पुस्तकों की रचना की जो अत्यन्त विवादित रहीं। ललई को उत्तर भारत का ‘पेरियार’ कहा जाता है।

ललई का जन्म एक सितम्बर 1911 को उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात जिले के कठारा ग्राम में एक सामान्य कृषक परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम ‘लल्ला’ था, लल्ला से ‘ललई’ हुए। इनके पिता चौ. गुज्जू सिंह यादव एक कर्मठ आर्य समाजी थे। इनकी माता श्रीमती मूलादेवी, उस क्षेत्र के जनप्रिय नेता चै. साधौ सिंह यादव निवासी ग्रा. मकर दादुर रेलवे स्टेशन रूरा, जिला कानपुर की साध्वी पुत्री थी। इनके मामा चौ. नारायण सिंह यादव धार्मिक और समाज सेवी कृषक थे। इन का पूरा परिवार पुराने धार्मिक होने के साथ साथ अंधविश्वास रूढि़यों को मानने वालों मे से नहीं थे

आरम्भिक जीवन

ललई सिंह यादव ने 1928 में उर्दू के साथ हिन्दी से मिडिल पास किया। 1929 से 1931 तक ललई यादव फाॅरेस्ट गार्ड रहे। 1931 में सरदार सिंह यादव ग्रा. जरैला निकट रेलवे स्टेशन रूरा जिला कानपुर की बेटी दुलारी देवी से हुआ। 1933 में वो शशस्त्र पुलिस कम्पनी जिला मुरैना (म.प्र.) में कॉन्स्टेबल पद पर भर्ती हुए। नौकरी के साथ-साथ उन्होंने पढ़ाई की। 1946 में पुलिस एण्ड आर्मी संघ ग्वालियर कायम करके उसके अध्यक्ष चुने गए।

1933 में सशस्त्र पुलिस कम्पनी जिला मुरैना (म.प्र.) में कान्स्टेबिल पद पर भर्ती हुए। नौकरी से समय बचा कर विभिन्न शिक्षायें प्राप्त की। सन् 1946 ईस्वी में नान गजेटेड मुलाजिमान पुलिस एण्ड आर्मी संघ ग्वालियर कायम कर के उसके अध्यक्ष चुने गए। ‘सोल्जर ऑफ दी वार’ ढंग पर हिन्दी में ‘‘सिपाही की तबाही’ किताब लिखी, जिसने कर्मचारियों को क्रांति के पथ पर विशेष अग्रसर किया। इन्होंने आजाद हिन्द फौज की तरह ग्वालियर राज्य की आजादी के लिए जनता तथा सरकारी मुलाजिमान को संगठित करके पुलिस और फौज में हड़ताल कराई।

उन्होंने जवानों से कहा कि:-

बलिदान न सिंह का होते सुना,
बकरे बलि बेदी पर लाए गए।
विषधारी को दूध पिलाया गया,
केंचुए कटिया में फंसाए गए।
न काटे टेढ़े पादप गए,
सीधों पर आरे चलाए गए।
बलवान का बाल न बांका भया
बलहीन सदा तड़पाए गए।
हमें रोटी कपड़ा मकान चाहिए।।

ललई यादव का विद्रोह

दिनांक 29.03.47 ईस्वी को ग्वालियर स्टेट्स स्वतंत्रता संग्राम के सिलसिले में पुलिस व आर्मी में हड़ताल कराने के आरोप धारा 131 भारतीय दण्ड विधान (सैनिक विद्रोह) के अंतर्गत साथियों सहित राज-बन्दी बने। दिनांक 06.11.1947 ईस्वी को स्पेशल क्रिमिनल सेशन जज ग्वालियर ने 5 वर्ष स-श्रम कारावास तथा पाँच रूपये अर्थ दण्ड का सर्वाधिक दण्ड अध्यक्ष हाई कमाण्डर ग्वालियर नेशनल आर्मी होने के कारण दी। दिनांक 12.01.1948 ईस्वी को सिविल साथियों सहित बंधन मुक्त हुये।

हिंदू धर्मग्रंथों का अध्ययन मे केवल ब्राह्मणों की महिमा का बखान और पिछड़े, शोषित समाज की मानसिक दासता के षड़यंत्र से वो व्यथित हो उठे। ऐसी स्थिति में इन्होंने धर्म छोड़ने का मन भी बना लिया। दुनिया के विभिन्न धर्मों का अध्ययन करने के बाद वैचारिक चेतना बढ़ने के कारण वे बौद्ध धर्म की ओर प्रवृत्त हुए।

उसी समय यह स्वाध्याय में जुटे गये। एक के बाद एक इन्होंने श्रुति, स्मृति, पुराण और विविध रामायणें भी पढ़ी। हिन्दू शास्त्रों में व्याप्त घोर अंधविश्वास, विश्वासघात और पाखण्ड से वह तिलमिला उठे। हर जगह पर केवल ब्राह्मण महिमा का बखान तथा दबे पिछड़े शोषित समाज की मानसिक दासता के षड़यन्त्र से वह व्यथित हो उठे। ऐसी स्थिति में इन्होंने यह धर्म छोड़ने का मन भी बना लिया। अब वह इस निष्कर्ष पर पहुंच गये थे कि समाज के ठेकेदारों द्वारा जानबूझ कर सोची समझी चाल और षड़यन्त्र से शूद्रों के दो वर्ग बना दिये गये है। एक सछूत  तो दूसरा अछूत ( शूद्र )। शूद्र को शूद्र बनाए ही रखना  ही ब्राह्मणवादी व्यवस्था है। उसे सामाजिक भागीदारी व हिस्सेदारी से कोसो दूर वो भी एक व्यवस्थागत षड्यंत्र के तहत ।

उनका कहना था कि सामाजिक विषमता का मूल, वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था, श्रृति, स्मृति और पुराणों से ही पोषित है। सामाजिक विषमता का विनाश सामाजिक सुधार से नहीं अपितु इस व्यवस्था से अलगाव में ही समाहित है। अब तक इन्हें यह स्पष्ट हो गया था कि विचारों के प्रचार प्रसार का सबसे सबल माध्यम लघु साहित्य ही है। इन्होंने यह कार्य अपने हांथों में लिया सन् 1925 में इनकी माताश्री, 1939 में पत्नी, 1946 में पुत्री शकुन्तला (11 वर्ष) और सन् 1953 में पिता श्री चार महाभूतों ने विलीन हो गये। अपने पिता जी के इकलौते पुत्र थे। पहली स्त्री के मरने के बाद दूसरा विवाह कर सकते थे। किन्तु क्रान्तिकारी विचारधारा होने के कारण इन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया और कहा कि अगली शादी स्वतन्त्रता की लड़ाई में बाधक होगी।

साहित्य की ओर झुकाव

साहित्य प्रकाशन की ओर भी इनका विशेष ध्यान गया। दक्षिण भारत के महान क्रान्तिकारी पैरियार ई. व्ही. रामस्वामी नायकर के उस समय उत्तर भारत में कई दौरे हुए। वह इनके सम्पर्क में आये। जब पैरियार रामास्वामी नायकर के सम्पर्क  आय तो इन्होंने उनके द्वारा लिखित ‘‘रामायण : ए ट्रू रीडि़ंग’’ (अंग्रेजी में) में विशेष अभिरूचि दिखाई। साथ ही दोनों में इस पुस्तक के प्रचार प्रसार की, सम्पूर्ण भारत विशेषकर उत्तर भारत में लाने पर भी विशेष चर्चा हुई। उत्तर भारत में इस पुस्तक के हिन्दी में प्रकाशन की अनुमति पैरियार रामास्वामी नायकर ने ललई यादव को सन् 01-07-1968 को दे दी।इसकी अनुमति मिलने के बाद ललई यादव ने उनकी किताब को हिंदी में छापने की सोची।1 जुलाई 1969 को किताब सच्ची रामायण के छपकर तैयार हो गई थी।

इसके प्रकाशन से सम्पूर्ण उत्तर पूर्व और पश्चिम भारत में एक तहलका-सा मच गया।पुस्तक प्रकाशन को अभी एक वर्ष ही बीत पाया था कि उ.प्र. सरकार द्वारा 08-दिसंबर -69 को पुस्तक जब्त करने का आदेश पारित हो गया कि यह पुस्तक भारत के कुछ नागरिक समुदाय की धार्मिक भावनाओं को जानबूझकर चोट पहुंचाने तथा उनके धर्म एवं धार्मिक मान्यताओं का अपमान करने के लक्ष्य से लिखी गयी है।इस आदेश के खिलाफ प्रकाशक ललई सिंह यादव ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में याचिका दायर की। इस केस की सुनवाई के लिए तीन जजों की स्पेशल फुल बैंच बनाई गई।अपीलांट (ललई सिंह) की ओर से निःशुल्क एडवोकेट श्री बनवारी लाल यादव और सरकार की ओर से गवर्नमेन्ट एडवोकेट तथा उनके सहयोगी श्री पी.सी. चतुर्वेदी एडवोकेट व श्री आसिफ अंसारी एडवोकेट की बहस दिनांक 26, 27 व 28 अक्टूबर 1970 को लगातार तीन दिन सुनी। दिनांक 19-जनवरी-71 को माननीय जस्टिस श्री ए. के. कीर्ति, जस्टिस के. एन. श्रीवास्तव तथा जस्टिस हरी स्वरूप ने बहुमत का निर्णय दिया कि –

1. गवर्नमेन्ट ऑफ उ.प्र. की पुस्तक ‘सच्ची रामायण’ की जप्ती की आज्ञा निरस्त की जाती है।
2. जप्तशुदा पुस्तकें ‘सच्ची रामायण’ अपीलांट ललईसिंह को वापिस दी जाये।
3. गर्वन्र्मेन्ट ऑफ उ.प्र. की ओर से अपीलांट ललई सिंह को तीन सौ रूपये खर्चे के दिलावें जावें।

ललई सिंह यादव द्वारा प्रकाशित ‘सच्ची रामायण’ का प्रकरण अभी चल ही रहा था कि उ.प्र. सरकारी की 10 मार्च 1970 की स्पेशल आज्ञा द्वारा ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’ नामक पुस्तक जिसमें डाॅ. अम्बेडकर के कुछ भाषण थे तथा ‘जाति भेद का उच्छेद’ नामक पुस्तक 12 सितम्बर 1970 को चौधरी चरण सिंह की सरकार द्वारा जब्त कर ली गयी। इसके लिए भी ललई सिंह ने श्री बनवारी लाल यादव एडवोकेट, के सहयोग से मुकदमें की पैरवी की। मुकदमें की जीत से ही 14 मई 1971 को उ.प्र. सरकार की इन पुस्तकों की जब्ती की कार्यवाही निरस्त कराई गयी और तभी उपरोक्त पुस्तके जनता को भी सुलभ हो सकी।

इसी प्रकार ललई सिंह द्वारा लिखित पुस्तक ‘आर्यो का नैतिक पोल प्रकाश’ के विरूद्ध 1973 में मुकदमा चला दिया। यह मुकदमा उनके जीवन पर्यन्त चलता रहा।पेरियार ललई सिंह यादव ने हिंदी में पाँच नाटक लिखे:-

1.अंगुलीमाल नाटक
2.शम्बूक वध
3.सन्त माया बलिदान
4.एकलव्य
5.नाग यज्ञ नाटक

इसके अतिरिक्त 1926 में लिखित स्वामी अछूतानन्द के अनुपलब्ध नाटक ‘सन्त माया बलिदान’ का पुनर्लेखन भी उन्होंने किया।
नाटकों के अलावा पेरियार ललई सिंह यादव ने तीन वैचारिक पुस्तकें लिखीं:-
1. शोषितों पर धार्मिक डकैती
2. शोषितों पर राजनीतिक डकैती और
3. सामाजिक विषमता कैसे समाप्त हो?

साहित्य प्रेम और अंधविश्वास के खिलाफ लड़ाई

साहित्य प्रकाशन के लिए उन्होंने एक के बाद एक तीन प्रेस खरीदे। शोषित पिछड़े समाज में स्वाभिमान व सम्मान को जगाने और उनमें व्याप्त अज्ञान, अंधविश्वास, जातिवाद तथा ब्राह्मणवादी परम्पराओं को ध्वस्त करने के उद्देश्य से सारा जीवन लघु साहित्य के प्रकाशन की धुन में लगा दिया।

सुप्रीम कोर्ट में ‘सच्ची रामायण’ के खिलाफ अपील हाईकोर्ट में हारने के बाद यूपी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट दिल्ली में अपील दायर कर दी। यहाँ भी ललई सिंह यादव की सच्ची रामायण की जीत हुई।बौद्ध धर्म की तरफ झुकाव और बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर की 14 अक्टूबर, 1956 में बौद्ध धर्म ग्रहण करने की घोषणा से ललई यादव बेहद खुश हुए। उनका बौद्ध धर्म की तरफ रूझान था और वे बौद्ध धर्म ग्रहण करना चाहते थे।

वे डॉ. अम्बेडकर द्वारा आयोजित बौद्ध धर्म दीक्षा ग्रहण समारोह में जाना चाहते थे लेकिन अश्वस्थता और खून की उल्टी होने के कारण 14 अक्टूबर को दीक्षा भूमि नहीं जा सके। लेकिन 21 जुलाई, 1967 को उन्होंने कुशीनगर जाकर महास्थविर ऊँ चंद्रमणि के हाथों बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। दीक्षा ग्रहण करने बाद ललई सिंह यादव ने एक सार्वजनिक घोषणा की कि ‘आज से मैं मनुष्य हूँ, मानवतावादी हूँ,जाति मूल्यों-मान्यताओं से पूर्णतः मुक्त हूँ।अब मैं अपने नाम के साथ किसी भी प्रकार का जातिसूचक या सामंती शब्दावली का प्रयोग नहीं करूँगा। आज से मैं सिर्फ ललई हूँ।

24 दिसम्बर, 1973 ई. को पेरियार ई.वी. रामास्वामी के निर्वाण हुआ। उनके निर्वाण के बाद 30 दिसम्बर 1974 को उनकी याद में महान स्मृति सभा हुई। जिसमें दुनिया के महान चिंतक-बुद्धिजीवी आए और अपने विचार रखे। ललई यादव ने भी अपना मत रखा। ये मिथक धर्म और संस्कृति पर उसी तरह प्रहार कर रहे थे जैसे पेरियार ईवी रामास्वामी करते थे। इस पर उस स्मृति सभा में उपस्थित कई लाख लोगों ने कहा- हमें हमारे पेरियार मिल गए। और तब से ही ललई यादव ,’ पेरियार ललई सिंह यादव ‘ के नाम से बहुजन समाज मे प्रसिद्ध हो गए ।

7 फरवरी 1993 को ललई यादव का परिनिर्वाण हो गया। बहुजन समाज को जागृत करने में उनके योगदान को हमेशा याद किया जाएगा।

🌷नित्य प्रेरणा-एक विभूति  🙏 पेरियार ललई सिंह यादव जी का जन्म 🌷

 

 

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