आंखन-देखी : माई रे माई बिहान कहिया होई

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खाता खोल दिजिए नीतीश जी, बिहार में दो दलितों का नरसंहार हुआ है

मुझे कोई हैरानी नहीं हुई है यह देखकर कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन याद रहे और और उन्हें बिहार लेनिन जगदेव प्रसाद की याद नहीं आयी। बीते दिनों जब बी. पी. मंडल को याद करने का दिन था तब भी नीतीश कुमार ने उन्हें याद नहीं किया। मैं यह नहीं मानता कि ऐसा केवल नीतीश कुमार ने इसलिए किया क्योंकि वे कुरमी जाति के हैं और अन्य पिछड़ी जातियों के महान लोगों से उन्हें चि़ढ़ है या फिर उनमें जातिगत श्रेष्ठता का बोध है। यदि ऐसा होता तो नीतीश कुमार को राधाकृष्णन की याद भी नहीं आनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। फिर वजह क्या है कि नीतीश कुमार को बीपी मंडल से भी परहेज है और जगदेव प्रसाद से भी?

मेरा मानना है कि नीतीश कुमार स्वयं को पिछड़े वर्ग के सभी नेातओं में सर्वश्रेष्ठ साबित करना चाहते हैं। उनका वश चले तो कर्पूरी ठाकुर की भी लत्तम-जूत्तम कर दें जैसा कि उन्होंने बीपी मंडल और जगदेव प्रसाद के साथ किया है। यही सच है। दूसरा सच यह भी कि वे बिहार की राजनीति की सबसे कमजोर नब्ज जानते हैं। वे यह जानते हैं कि पिछड़े वर्गों के लोगों में इतनी राजनीतिक चेतना का विस्तार हो चुका है कि सबके सब महत्वाकांक्षी हो चुके हैं। सभी को विधायक बनना है। मंत्री बनना है। जब व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा बढ़ जाति है तब जाति का कोई महत्व नहीं रह जाता। इसका एक उदाहरण स्वयं नीतीश कुमार हैं। दिसंबर, 2005 में जब बिहार की सत्ता फाइनली उनके हाथों में आ गई तब सबसे पहले उन्होंने दो काम किये। इनमें से एक काम तो सभी जानते हैं कि उन्होंने रणवीर सेना के संरक्षकों की जांच में लगी जस्टिस अमीरदास आयोग को भंग कर दिया ताकि रणवीर सेना और उसके संरक्षकों पर कोई आंच न आवे। दूसरा काम जरा अलग है। बिहार के बहुत सारे राजनीतिज्ञ भी इस काम के बारे में नहीं जानते-समझते।

यह काम था – रामाश्रय प्रसाद सिंह को अपने मंत्रिमंडल में शामिल करना। यह वही रामाश्रय प्रसाद सिंह थे जो जाति के भूमिहार थे और इनके उपर जगदेव प्रसाद की कुर्था प्रखंड परिसर में जनसभा के दौरान हत्या करवाने का आरोप था। वैसे यह महज आरोप मात्र नहीं है। नीतीश कुमार ने यह सब जानते हुए किया। मतलब यह कि उन्होंने जो किया गांजा पीकर नहीं किया। वह जानते थे कि इन दो कामों का कितना महत्व है। हद तो तब हो गई जब जगदेव प्रसाद के बेटे नागमणि और उनकी पत्नी ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में रामाश्रय प्रसाद सिंह का पैर छुआ।

खैर, मैं भी कहां बीती बातों में फंस गया हूं। नीतीश कुमार की चालबाजी बिहार के लोग समझें या नहीं समझें। यह बिहार के लोगों की समस्या है। वैसे मैं भी बिहार का ही हूं। लेकिन मुझे लगता है कि आदमी जहां रहता है, उसको वहीं का मान लेना चाहिए। इससे परेशानी कम होती है। मतलब यह कि यदि कोई बिहार का आदमी अमेरिका में रहे तो उसे यह मानना चाहिए कि वह अमेरिका का ही है। अब हर कोई कंगना रााणावत कैसे हो सकता है कि वह कह दे कि दिल्ली तालिबानियों के कब्जे में है। कहना भी नहीं चाहिए। यह इसके बावजूद कि सबसे क्रूर पुलिसिंग दिल्ली में होती है। इसके कई उदाहरण हैं। अभी दिल्ली दंगे के मामले में साफ-साफ दिखा भी कि दिल्ली पुलिस कैसे तालिबानियों के कान काट रही थी। सीएए और एनआरसी के मामले में भी उसका व्यवहार प्रो-पीपुल तो नहीं ही था।

खैर, वक्त का तकाजा है कि बिहार के बारे में बात की जाय। वहां चुनाव होने हैं। वहां के सवालों पर अभी बात करना जरूरी है। तो कल वहां दो घटनाएं घटीं जो मेरे संज्ञान में आयी हैं। पहली घटना तो यह कि संपूर्ण क्रांति स्पेशल ट्रेन से शराब की ढुलाई हो रही थी। पुलिस मौके पर पहुंची और पुलिस के मुताबिक शराब माफियाओं (दलित लोगों) ने हमला बोल दिया। एक दारोगा को जमकर पीटा। कुछ और पुलिसकर्मी घायल हुए। पटना के भूमिहार एसएसपी ने कहा है कि इस मामले में जो कुछ किया वह दलितों ने किया। पुलिस ने कोई गोली नहीं चलाई।

दरअसल, यह घटना नीतीश कुमार के दावे की पोल खोलती है कि बिहार में शराबबंदी है। दूसरा यह कि नीतीश कुमार ने समाज में एक नया वर्ग पैदा कर दिया है। शराब तस्करों का। आपको “नमक का दारोगा” याद है? वही प्रेमचंद की कहानी जिसमें नमक की तस्करी एक ब्राह्मण करता है। बिल्कुल उसी तर्ज पर शराब का दारोगा/इंस्पेक्टर/एसपी सब मिल जाएंगे। बहुत अधिक साल नहीं हुए जब पटना पुलिस के मालखाने में चूहे शराब पी गए थे।

दूसरी घटना पूर्णिया जिले के बनमनखी प्रखंड के जानकीनगर थाने की है। बीते शुक्रवार की देर रात यहां नरसंहार करने की कोशिश की गई। करीब दो दर्जन सवर्ण अपराधियों ने ठाकुरपट्टी वार्ड संख्या चार में रहने वाले मुसहर जाति के लोगों को घेर लिया और अंधाधुंध फायरिंग करने लगे। इस घटना में दर्जनों लाशें बिछ जातीं अगर लोगों ने खुद को नहीं बचाया होता। फिर भी इस घटना में दो लोगों की मौत हो गई और करीब 9 लोग घायल हैं। मारे गए लोगों में एक अनमोल ऋषिदेव (35 वर्ष) और दूसरा सुबोध ऋषिदेव (35 वर्ष) शामिल हैं। इस घटना के पीछे दो एकड़ गैरमजरूआ जमीन है जिसपर मुसहर जाति के लोग पीढ़ियों से रहते आए हैं। अब इस जमीन पर सवर्णों की नजर है।

इस घटना से याद आया कि नीतीश कुमार को बधाई दूं। बधाई खाता खोलने की। अभी हाल ही में उन्होंने एलान किया है कि हर दलित की हत्या होने पर उसके एक आश्रित को वह सरकारी नौकरी देंगें। अब उनके पास सुनहरा मौका है। अनमोल ऋषिदेव और सुबोध ऋषिदेव के परिजनों को नौकरी देकर इसकी शुरूआत करें। बिहार के दलित भी देख लेंगे कि नीतीश कुमार जो कहते हैं, वह करते भी हैं।

खैर, मन खिन्न हो उठा है। बिहार के बारे में सोच-सोचकर। यह भी कोई सोचने की बात है। लेकिन शायद यह उस धरती का कर्ज है मुझपर। चाहकर भी बिहार के बारे में सोचना बंद नहीं कर पाता। मेरे जेहन में बिहार आ ही जाता है। जब बिहार मेरे जेहन में आता है तो लगता है कि क्या वह दिन भी कभी आएगा जब यहां भूमि सुधार लागू होगा? जमीन का असमान और अन्यायपूर्ण वितरण खत्म होगा? क्या भूमिहीन हमेशा के लिए भूमिहीन रह जाएंगे? क्या ऐसा कोई शासक नहीं आएगा बिहार में जिसके इरादे जनता को हित पहुंचाना हो?

बहरहाल, प्रेमचंद को पढ़ रहा हूं। उनकी एक कहानी विध्वंस 1921 में प्रकाशित हुई थी। प्रेमचंद की कहानी का सबसे बड़ा अवगुण यही है कि अंत दो ही तरह के होते हैं। या तो आश्चर्यजनक अंत या फिर मैनिपुलेटेड अंत। स्वभाविक अंत प्रेमचंद की कहानियों में नहीं। अब विध्वंस को ही देखिए। एक भुनगी पूरी कहानी में लड़ती दिखती है लेकिन अंत में प्रेमचंद उसे आग के हवाले कर देते हैं। एक तरह की खुदकुशी। और इसके बाद आश्चर्यजनक अंत देखिए कि उसके आग में कूदते ही खूब तेज हवाएं चलने लगती हैं और भुनगी पर अत्याचार करने वालों का घर जल जाता है।

एक तरफ भुनगी की खुदकुशी और दूसरी तरफ सवर्ण आततायियों के घर का जलना। सचमुच बिहार में यही हो रहा है।

याद नहीं कि इस गीत के लेखक कौन हैं, लेकिन उद्धृत कर रहा हूं –

माई रे माई बिहान कहिया होई….

– नवल किशोर कुमार

(हिन्दी संपादक ,फॉरवर्ड प्रेस )

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